क्यों आज हमारी युवा पीड़ी निरंतर खोती जा रही है अपने नैतिक मूल्य? इस विषय पर अक्सर बहुत बार चर्चा सुनने को मिलती है, टी वी न्यूज़ चैनल्स के माध्यम से और समाचार पत्रों के माध्यम से. अगर हम अपने परिवार को लेकर आगे बढें, अपने आस पड़ोस को लेकर आगे बढ़ें तो हम भी इस बात से जरूर इतेफाक रखेंगे कि आज की जो हमारी युवा पीड़ी है और जो युवा पीड़ी आ रही है, उसमे जरूर कही न कहीं नैतिक मूल्यों की कमी नजर आती है, जैसे नैतिक मूल्य हमारे पूर्वजों के थे, हमारे माता पिता के थे. ये जो आज की पीड़ी है जिसमे मैं भी आता हूँ जरूर कही न कही हम अपना नैतिक मूल्य खोते जा रहे है और ये दर नित प्रतिदिन बढती जा रही है. जो संस्कार हमारे पूर्वजों के थे वो संस्कार हम अपनी नई पीड़ी को देने में कामयाब नही हो पा रहे है और मेरी नजर में इसके दोषी भी हम ख़ुद है, हमारा परिवार है, हमारे माँ बाप है.
अगर मैं अपनी उम्र की युवा पीड़ी को उद्दहरण के तोर पर लेकर आगे बड़ों तो बचपन मैं दादा-दादियों द्वारा हमको अच्छी अच्छी से कहानियाँ सुनने को मिलती थी. कहते है कि जब बच्चा छोटा होता है तो उस समय उसका मस्तिष्क बिल्कुल शून्य होता है, आप उसको जैसे संस्कार और शिक्षा देंगे वो उसी राह पर आगे बढता है. अगर बाल्यकाल में बच्चे को ये शिक्षा दी जाती है कि बेटा चोरी करना बुरा काम है तो वो चोरी करने से पहले सो बार सोचेगा, क्योंकि उसको शिक्षा मिली हुई है कि चोरी करना बुरी बात है. बाल्यकाल में बच्चे को संस्कारित करने में घर के बुजुर्गों का, माता पिता का बहुत बड़ा हाथ होता है. जैसे मैंने कहा कि जब छोटे थे और गाँव के बुजुर्ग दादा-दादियों की संगत में कुछ पल ब्यतीत करते थे, तो वो हमको बहुत कुछ अच्छी अच्छी कहानियाँ सुनाया करते थे जिसका कुछ न कुछ प्रभाव हमारे मन मस्तिष्क पर पड़ता था, उनमे से कुछ कहानिया प्रेरणादायी होती थी, कुछ परोपकारी होती थी, कुछ जीवों पर दया करने वाली होती थी, कुछ देवी देवितोँ की होती थी और कुछ क्षेत्रीय कहानिया होती थी और सबका उद्देश्य हमारे अन्दर अच्छे संस्कारों को डालने का होता था और जो कि हमें संस्कारित बनाए रखने में आज भी बहुत मदद करते है. आज भी यदि हमारे कदम अपने पथ से विचलित होने का प्रयास करते है तो वो पुरानी कही हुई बातें याद आज जाती है और जो हमें फ़िर से सही पथ पर ले जाने का प्रयास करती है.
मैंने किसी प्रत्रिका मैं पढ़ा था कि किसी ५ साल के बच्चे से किसी सम्मानीय ब्यक्ति ने दुर्गा माँ की फोटो की ओर इशारा करते हुए पूछा बेटा ये कोन है तो बच्चे का जवाब था लोयन वाली औरत, जो इस लोयन के ऊपर बैठी है, किसी दूसरे सम्मानीय ब्यक्ति ने गणेश भगवान् के बारे में पूछा तो बच्चा गणेश जी को...Elephant God.......संबोधित करते हुए पाया गया. अब बताओ इसमे उस बच्चे का कसूर ही क्या है? जब कभी भी उस परिवार के सदस्य ने उसको ये बताने की कोशिश नही की कि बेटा ये दुर्गा माता है जिनका वहां शेर है या ये गणेश भगवान् जी है जिनका मुह हाथी की सूंड जैसा होता है तो उसको कैसे पता चलता?
जब हम छोटे थे तो हमारे पास एक नैतिक शिक्षा की किताब होती थी जिनमे कि बहुत अच्छी अच्छी कहानिया होती थी जिनको पड़कर बहुत आनंद आता था और एक बार मन में उन जैसा बनने की तीव्र इच्छा होती थी, लेकिन शायद आजकल उस नैतिक शिक्षा की किताब का अर्थ ही बदल गया है, उसका कोई महत्व ही नही रह गया है. मुझे तो लग रहा है कि शायद आज वो नैतिक शिक्षा की किताब स्कूलों से गायब भी हो चुकी होगी.
आज आपके घरों में दुनिया भर की कोमिक्स का ढेर मिल जाएगा, कंप्यूटर गेम्स की दुनिया भर की सी डी मिल जाएँगी, फिल्मी गानों की दुनिया भर की कैसेट आपके बच्चे के कमरे में मिल जायेगी लेकिन सरदार भगत सिंह, महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद आदि मनीषियों की प्रेरणा श्रोत कहानियो की किताब आपके बच्चे के स्कूल बैग से नदारद मिलेगी और यहाँ तक कि आप भी ये कोशिश कभी नही करेंगे कि आप अपने बच्चे को ऐसी किताबें खरीद कर लायें. पहले यदि हमारे माँ बाप ऐसी किताबें नही भी खरीदा करते थे तो इसकी कमी हमारे दादा-दादी और बुजुर्ग पूरा कर देते थे, लेकिन आज हमारे बुरुगों की क्या स्तिथि है ये हम सब लोग जानते है. आज हर माँ बाप की ये कोशिश रहती है कि उनके बच्चे उनके दादा-दादी से दूर रहे, यदि कभी दादा दादी ने बच्चे को डांटने की हिमाकत भी कर ली तो उल्टा उनको उसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है.
शायद ही अब किसी बच्चे को वो दादा दादी की कहानिया सुनने को मिलती होंगी, वो लोरी वो गीत सुनने को मिलते होंगे और शायद न ही कोई माँ बाप के पास इतना समय है कि वो अपने बच्चे को संस्कारित होने के संस्कार दे सकें. आज महात्मा गांधी, भगत सिंह, विवेकनन्द, लाल बहादुर शास्त्री केवल या तो उनके जन्म दिवस के मोके पर ही याद किए जाते है या उनके निर्वाण दिवस पर, आज वो हमारे घरों से नदारद है, हमारे दादा-दादियों की कहानियो से नदारद है, हमारे माँ बाप की जुबान से बहुत दूर है, हमारे आस से दूर है और हमारे पड़ोस से दूर है. तो कैसे हम ये आशा कर सकते है कि हमारे बच्चों से अच्छे संस्कार आयें? अच्छे संस्कार देने के लिए हमारे पास तो समय नही है, जो उनको अच्छे संस्कार दे सकते थे उनको तो उपेक्षित किया जाता है, जिन पुस्तकों को पढने से उनको संस्कारित किया जा सकता है उनका स्थान कोमिक्स, खिलोने और कोम्प्टर गेम्स ने ले लिया है, तो कैसे हम ये आश कर सकते है.
इसके बारे में हमको ख़ुद सोचना चाहिए क्योंकि कल हमें भी किसी का माँ / बाप और दादा/दादी बनना है. हम ये निश्चय करते है कि हमारी संतान किस दिशा में जा रही है और हम उनको क्या संस्कार दे रहे है. इसका और कोई जिम्मेदार नही है, केवल हम ही है.
धन्यबाद
सुभाष काण्डपाल
बद्री केदार उत्तराखंड
Monday, July 28, 2008
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3 comments:
ra
Helpful
He has not written this
He has copied and paste from jagran junction newspaper.
Jagran newspaper had written this.
He should not be appreciated.
Thank you.
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