Thursday, August 28, 2008

बिहार बाड़ पीडितों की सहायता करें

आदरणीय मित्रों,

नमस्कार, जैसे कि आप लोगों को मालूम ही होगा कि बिहार में कोसी नदी में बाड आ जाने से वहा का जीवन अस्त-ब्यस्त हो गया है, लोगों के घर पानी में डूब गए है, फसलें नष्ट हो गई है, कई लोग अपनी जिंदगी गँवा चुके है और कई लोग जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहे है. आशियाने डूब गए है, एक चलती फिरती जिंदगी अचानक सी रुक सी गई है, बिहार के बाड प्रभावित लोग कई प्रकार की परेशानियों से झूझ रहे है. इंसानियत के नाते हम लोगों को भी आज इस संकट की घड़ी में उन बाड प्रभावित लोगों के साथ उनकी मदद के लिए आगे आना चाहिए. यदि हम शारीरिक रूप से उनका साथ नही दे सकते है, तो आर्थिक रूप से हम उनकी कुछ न कुछ मदद जरूर कर सकते है. मेरा ब्याक्तिगत हम सभी लोगों से निवेदन है कि हमें भी इस प्राकृतिक आपदा में उन लोगों का साथ देना चाहिए. जिससे जितनी आर्थिक सहायता हो सकती है कृपया सभी लोग आगे आयें और इस मुश्किल की घड़ी में उन लोगों का हमसफर बनें.

आपका एक छोटा सा प्रयास (सहायता ) किसी का जीने का सहारा बन सकता है.

सभी लोगों से निवेदन है कि अपने ऑफिस और आस पड़ोस में भी लोगों को बाड पीड़ित लोगों की मदद करने के लिए प्रेरित करें.


धन्यबाद
सुभाष काण्डपाल
बद्री केदार उत्तराखंड

Wednesday, August 13, 2008

स्वतन्त्रता दिवस और रक्षा बंधन की हार्दिक शुभ कामनाएं

आप सभी लोगों को स्वतन्त्रता दिवस और रक्षा बंधन की हार्दिक शुभ कामनाएं


जन-गण-मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य-विधाता,
पंजाब-सिन्धु-गुजरात- मराठा -
द्राविड -उत्कल-बन्ग
विन्ध्य-हिमाचल-यमुना-गन्गा
उच्छल-जलधि-तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशीष मांगे,
गाहे तव जय-गाथा
जन-गण-मन-मंगलदायक जय हे
भारत-भाग्य- विधाता
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे


वन्दे मातरम्
सुजलाम् सुफलम् मलयजशीतलाम्
सस्यश्यामलाम् मातरम्
शुभ्रज्योत्स्नपुलकितयामिनिम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनिम्
सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम्
सुखदाम् वरदाम् मातरम्
कोटिकोटिकण्ठकलकलनिनादकराले
कोटीकोटीभुजैधृतैखरकरवाले
के बले मा तुमि अबले
बहूबलधारिणीम् मतरम्
तुमि विद्या तुमि धर्म तुमि हृदि तुमि मर्म
त्वं हि प्राणाः शरीरे
बाहु ते तुमि मा शक्ति,हृदये तुमि मा भक्ति
तोमाराइ प्रतिमा कडि मंदिरे मंदिरे,मातरम्
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादयिनी
नमामि त्वां नमामि कमलाम् अमलाम्
अतुलाम् सुलजाम्
सुफलाम् मातरम्
श्यामलाम् सरलाम् सुस्मिताम् भुषिताम्
धरणीम् भरणीम् मातरम्

वन्दे मातरम्


भारत माता की जय भारत माता की जय भारत माता की जय

जय हिंद


धन्याबाद

सुभाष काण्डपाल

Friday, August 8, 2008

हे भगवान् किसी को न दीजो ऐसा बुडापा

बात कुछ दिन पहले की है. मैं सुबह घर से अपने ऑफिस के लिए निकलते हुए बस स्टैंड पर पंहुचा. स्टैंड पर काफी भीड़ थी, कई लोग बस से उतर रहे थे तो कई लोग बस में सवार हो रहे थे और कई लोग बस का इंतजार भी कर रहे थे, उन्ही में से एक मैं भी अपनी बस का इन्तजार कर रहा था. मुझे लगभग २-३ मिनट बस की इंतजारी करते हुए हो गया था, लेकिन मैं इन चंद मिनटों के समय में एक चीज ध्यान पूर्वक देख रहा था, एक बुजुर्ग, उम्र लगभग ६०-७० के बीच की, बस स्टैंड पर उपस्स्तिथ सभी लोगों से हाथ जोड़कर विनती कर रहे थे कि कोई उन्हें खाना खिलाये, उन्हें भूख लगी है, उनकी हालत देख कर तो ऐसा लग रहा था कि जैसे उन्होंने काफी समय से भोजन नही किया है, लेकिन किसी भी मुसाफिर ने उनकी तरफ़ देखना तक पसंद नही किया, वह बेचारा, लाचार, भूख प्यास से पीड़ित बुजुर्ग अभी भी इस आश से लोगों से विनती कर रहा था कि कोई जरूर उनकी मदद करेगा, लेकिन शायद दया नामक भावः हमारे ह्रदय में रहा ही न था. जैसे मैं उस बुजुर्ग की ओर आगे बड़ा तभी एक महानुभाव ने उनकी तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि चलो मैं आपको भोजन करवाता हूँ. वो सज्जन उन बुजुर्ग को एक रेडी वाले की दुकान पर ले गए और रेडी वाले से उनके लिए भोजन की थाली को लगाने के लिए कहा. मेरी नजर तो उन बुजुर्ग पर ही थी, मैं तब और भी अचंभित हो गया जब उस दुकानदार ने उस बुजुर्ग को खाना देने से साफ़ मना कर दिया. मेरी समझ में ये नही आ रहा था कि जब वो सज्जन उनको खाना खिलाना चाहता है तो फ़िर वो मना क्यों कर रहा है? उस सज्जन ने बड़े प्रेम से उस रेडी वाले से कहा कि भय्या मैं तुमको पैसे दे रहा हूँ, तुम्हे इनको भोजन खिलाने में क्या परेशानी है? तब रेडी वाला बोलता है कि ये बुड्डा पागल है, ये बार बार यहाँ पर आकर खाना मांगता है, मैं इसको खाना नही दूंगा. उस सज्जन की काफी अनुनय विनय के बाद वो दुकानदार उस बुजुर्ग को खाना देने के लिए तैयार हो गया. उन्होंने उसको पूडी और छोले की थाली दी. थाली में एक पूड़ी और कुछ छोले थे, जैसे ही बुजुर्ग ने थाली में एक पूड़ी देखि तो बिना पूड़ी खाए हुए उन्होंने उस सज्जन से कहा कि मुझे तीन पूडियां और चाहिए. उस ब्यक्ति ने बड़े प्यार से उन बुजुर्ग से कहा कि आपको जितनी पूडिया चाहिए, आपको मिलेगी, आप बड़े आराम से खाईये. बाद में थीं और पूडियां उस बुजुर्ग की थाली में परोशी गई. दुकान दार को पैसे चुकाने के बाद वो सज्जन अपने गंतब्य की ओर प्रस्थान कर गया जबकि बुजुर्ग भोजन का स्वाद ले रहा था और अपनी भूख मिटा रहा था.

अब सवाल ये है कि क्या वो बुजुर्ग वास्तव में पागल था या भूख ने उसको पागलों जैसा बना दिया था. क्या उस दुकानदार का कहना बिल्कुल उचित था कि यदि इसको खाना देते है तो ये बार बार खाने की मांग करता है?. नही दोस्तों, सोचो यदि हम भूख से बहुत ब्याकुल है और यदि कोई हमें एक टुकडा रोटी को दे तो क्या वो एक रोटी को टुकडा हमारी भूख को तृप्त कर देगा? नही बल्कि वो हमारी भूख को और प्रज्जवलित करेगा जब तक कि हमें भरपेट भोजन न मिल जाय. वही स्तिथि उस बुजुर्ग की भी थी, यदि कोई उसे एक रोटी का टुकडा भी देता होगा तो उससे उसकी भूख शांत नही होती है, बल्कि और भी ज्यादा बदती होगी और इसीलिए वो बार बार खाने की मांग करता होगा. इसलिए दोस्तों मेरी नजर में पागल वो बुजुर्ग नही है, बल्कि उसकी भूख है, जिसने उसको पागलों जैसा बना दिया है. एक अकेला ही ऐसा बुजुर्ग नही है, आपको हजारों लाखों ऐसे कई लोग मिल जायेगे जो अपनी क्षुदा (भूख) पूर्ति करने के लिए पागलों की श्रेणी में गिने जाते है.

धन्य हो ऐसे पुत्र पुत्री जिन्होंने अपने माँ बाप को ऐसी अवस्था में छोड़ दिया है, उनके लिए मेरे पास शब्द नही है और अगर यदि उस बुजुर्ग के पास इस बुडापे के लिए कोई अपना सहारा ही नही है या था तो मैं भगवान् से यही प्रार्थना करूँगा कि हे भगवान् ना दीजो कभी किसी (मुझे) को ऐसा बुडापा.

तो दोस्तों क्या आप ऐसा बुडापा जीवन ब्यतीत करना चाहेंगे कि आपको २ जून की रोटी के लिए दर दर भटकना पड़े?

सुभाष काण्डपाल
बद्री केदार उत्तराखंड

Monday, July 28, 2008

गिरते नैतिक मूल्य

क्यों आज हमारी युवा पीड़ी निरंतर खोती जा रही है अपने नैतिक मूल्य? इस विषय पर अक्सर बहुत बार चर्चा सुनने को मिलती है, टी वी न्यूज़ चैनल्स के माध्यम से और समाचार पत्रों के माध्यम से. अगर हम अपने परिवार को लेकर आगे बढें, अपने आस पड़ोस को लेकर आगे बढ़ें तो हम भी इस बात से जरूर इतेफाक रखेंगे कि आज की जो हमारी युवा पीड़ी है और जो युवा पीड़ी आ रही है, उसमे जरूर कही न कहीं नैतिक मूल्यों की कमी नजर आती है, जैसे नैतिक मूल्य हमारे पूर्वजों के थे, हमारे माता पिता के थे. ये जो आज की पीड़ी है जिसमे मैं भी आता हूँ जरूर कही न कही हम अपना नैतिक मूल्य खोते जा रहे है और ये दर नित प्रतिदिन बढती जा रही है. जो संस्कार हमारे पूर्वजों के थे वो संस्कार हम अपनी नई पीड़ी को देने में कामयाब नही हो पा रहे है और मेरी नजर में इसके दोषी भी हम ख़ुद है, हमारा परिवार है, हमारे माँ बाप है.

अगर मैं अपनी उम्र की युवा पीड़ी को उद्दहरण के तोर पर लेकर आगे बड़ों तो बचपन मैं दादा-दादियों द्वारा हमको अच्छी अच्छी से कहानियाँ सुनने को मिलती थी. कहते है कि जब बच्चा छोटा होता है तो उस समय उसका मस्तिष्क बिल्कुल शून्य होता है, आप उसको जैसे संस्कार और शिक्षा देंगे वो उसी राह पर आगे बढता है. अगर बाल्यकाल में बच्चे को ये शिक्षा दी जाती है कि बेटा चोरी करना बुरा काम है तो वो चोरी करने से पहले सो बार सोचेगा, क्योंकि उसको शिक्षा मिली हुई है कि चोरी करना बुरी बात है. बाल्यकाल में बच्चे को संस्कारित करने में घर के बुजुर्गों का, माता पिता का बहुत बड़ा हाथ होता है. जैसे मैंने कहा कि जब छोटे थे और गाँव के बुजुर्ग दादा-दादियों की संगत में कुछ पल ब्यतीत करते थे, तो वो हमको बहुत कुछ अच्छी अच्छी कहानियाँ सुनाया करते थे जिसका कुछ न कुछ प्रभाव हमारे मन मस्तिष्क पर पड़ता था, उनमे से कुछ कहानिया प्रेरणादायी होती थी, कुछ परोपकारी होती थी, कुछ जीवों पर दया करने वाली होती थी, कुछ देवी देवितोँ की होती थी और कुछ क्षेत्रीय कहानिया होती थी और सबका उद्देश्य हमारे अन्दर अच्छे संस्कारों को डालने का होता था और जो कि हमें संस्कारित बनाए रखने में आज भी बहुत मदद करते है. आज भी यदि हमारे कदम अपने पथ से विचलित होने का प्रयास करते है तो वो पुरानी कही हुई बातें याद आज जाती है और जो हमें फ़िर से सही पथ पर ले जाने का प्रयास करती है.

मैंने किसी प्रत्रिका मैं पढ़ा था कि किसी ५ साल के बच्चे से किसी सम्मानीय ब्यक्ति ने दुर्गा माँ की फोटो की ओर इशारा करते हुए पूछा बेटा ये कोन है तो बच्चे का जवाब था लोयन वाली औरत, जो इस लोयन के ऊपर बैठी है, किसी दूसरे सम्मानीय ब्यक्ति ने गणेश भगवान् के बारे में पूछा तो बच्चा गणेश जी को...Elephant God.......संबोधित करते हुए पाया गया. अब बताओ इसमे उस बच्चे का कसूर ही क्या है? जब कभी भी उस परिवार के सदस्य ने उसको ये बताने की कोशिश नही की कि बेटा ये दुर्गा माता है जिनका वहां शेर है या ये गणेश भगवान् जी है जिनका मुह हाथी की सूंड जैसा होता है तो उसको कैसे पता चलता?

जब हम छोटे थे तो हमारे पास एक नैतिक शिक्षा की किताब होती थी जिनमे कि बहुत अच्छी अच्छी कहानिया होती थी जिनको पड़कर बहुत आनंद आता था और एक बार मन में उन जैसा बनने की तीव्र इच्छा होती थी, लेकिन शायद आजकल उस नैतिक शिक्षा की किताब का अर्थ ही बदल गया है, उसका कोई महत्व ही नही रह गया है. मुझे तो लग रहा है कि शायद आज वो नैतिक शिक्षा की किताब स्कूलों से गायब भी हो चुकी होगी.

आज आपके घरों में दुनिया भर की कोमिक्स का ढेर मिल जाएगा, कंप्यूटर गेम्स की दुनिया भर की सी डी मिल जाएँगी, फिल्मी गानों की दुनिया भर की कैसेट आपके बच्चे के कमरे में मिल जायेगी लेकिन सरदार भगत सिंह, महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद आदि मनीषियों की प्रेरणा श्रोत कहानियो की किताब आपके बच्चे के स्कूल बैग से नदारद मिलेगी और यहाँ तक कि आप भी ये कोशिश कभी नही करेंगे कि आप अपने बच्चे को ऐसी किताबें खरीद कर लायें. पहले यदि हमारे माँ बाप ऐसी किताबें नही भी खरीदा करते थे तो इसकी कमी हमारे दादा-दादी और बुजुर्ग पूरा कर देते थे, लेकिन आज हमारे बुरुगों की क्या स्तिथि है ये हम सब लोग जानते है. आज हर माँ बाप की ये कोशिश रहती है कि उनके बच्चे उनके दादा-दादी से दूर रहे, यदि कभी दादा दादी ने बच्चे को डांटने की हिमाकत भी कर ली तो उल्टा उनको उसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है.

शायद ही अब किसी बच्चे को वो दादा दादी की कहानिया सुनने को मिलती होंगी, वो लोरी वो गीत सुनने को मिलते होंगे और शायद न ही कोई माँ बाप के पास इतना समय है कि वो अपने बच्चे को संस्कारित होने के संस्कार दे सकें. आज महात्मा गांधी, भगत सिंह, विवेकनन्द, लाल बहादुर शास्त्री केवल या तो उनके जन्म दिवस के मोके पर ही याद किए जाते है या उनके निर्वाण दिवस पर, आज वो हमारे घरों से नदारद है, हमारे दादा-दादियों की कहानियो से नदारद है, हमारे माँ बाप की जुबान से बहुत दूर है, हमारे आस से दूर है और हमारे पड़ोस से दूर है. तो कैसे हम ये आशा कर सकते है कि हमारे बच्चों से अच्छे संस्कार आयें? अच्छे संस्कार देने के लिए हमारे पास तो समय नही है, जो उनको अच्छे संस्कार दे सकते थे उनको तो उपेक्षित किया जाता है, जिन पुस्तकों को पढने से उनको संस्कारित किया जा सकता है उनका स्थान कोमिक्स, खिलोने और कोम्प्टर गेम्स ने ले लिया है, तो कैसे हम ये आश कर सकते है.

इसके बारे में हमको ख़ुद सोचना चाहिए क्योंकि कल हमें भी किसी का माँ / बाप और दादा/दादी बनना है. हम ये निश्चय करते है कि हमारी संतान किस दिशा में जा रही है और हम उनको क्या संस्कार दे रहे है. इसका और कोई जिम्मेदार नही है, केवल हम ही है.

धन्यबाद
सुभाष काण्डपाल
बद्री केदार उत्तराखंड

Tuesday, May 20, 2008

क्या यही पशु प्रेम है ??

दोस्तो कुछ दिन पहले मेरी नजर किसी दैनिक समाचार पत्र पर पढी, समाचार पढने के लिए मेरी थोडी इच्छा जाग्रत हुई, मैं समाचार पत्र पढने लग गया. समाचार संबंधित था एक कुत्ते के बारे मे,जो अपने मालिक को आज लाखों की महीने की आमदनी दे रहा है, दोस्तो ये और कोई कुत्ता नही है, वही है जिसको आप लोग हमेशा विभिन टी वी चैनल्स में विज्ञापन करते हुए देखते आ रहे है, हाँ दोस्तो वही वोडाफोन वाला कुत्ता. समाचार मे मैं आगे क्या पढता हूँ कि किसी एक पशु प्रेमी स्वयम संस्था ने वोडाफोन कंपनी वालों के इस विज्ञापन पर अदालत मे मुकदमा दायर कर दिया है. स्वयं सेवी संस्था ने कंपनी पर कुत्ते को उत्प्रीरण करने का आरोप लगाया है. स्वयं सेवी संस्था कहती है कि जब उन्होंने इस विज्ञापन का फिल्माकन किया होगा उस समय कुत्ते को बहुत तकलीफ हुई होगी. दोस्तो मैं उसी स्वयं सेवी संस्था से पूछना चाहता हूँ तब उनका पशु प्रेम कहा गया जब हजारों कुत्ते आए दिन गली मोहलों मे एक टुकड़े रोटी के लिए भटकते रहते है, एक टुकड़े रोटी के लिए अपने आप में लड़ते रहते है, कोई किसी बीमारी से संक्रमित है तो कोई किसी बीमारी से. किसी पर मखियाँ भिन भिना रही है तो कोई किसी गंदे नाले मे अपनी प्यास बुझा रहा है. तब उनका पशु प्रेम कहा गया? तब उनको उनकी पीड़ा नही महसूस हो रही है. ऐसे ही हजारों पालतू पशु हमारी गली गलियों में घुमते हुए नजर आते रहते है. क्या उन्होंने कभी उनके लिए आवाज उठाई?

अरे आज वो उस कुत्ते की बात कर रहे है जो अपने मालिक के घर मे चारपाई और रजाई के अन्दर सोता है, जो खुशबू दार साबुन से नहाता है, जो वो भोजन करता है जो हम जैसे सामान्य परिवार के लोग नही कर पाते है, उसके लिए करुना भाव का पैदा होना, थोड़ा सा आश्चर्यजनक लगता है.

दोस्तो हो सकता है मैं अपने आप में ग़लत हूँ, मेरे सोचने का तरीका ग़लत हो, लेकिन में उन पशु प्रेमी संस्थाओं से कहना चाहता हूँ कि अगर सच्चे अर्थों में तुमको हमारे पालतू पशुओं की चिंता है तो सबसे पहले उनकी सहायता करो, उनकी सहायता के लिए आगे आओ, जिनको उनकी जरूरत है.

Thursday, April 24, 2008

क्या उत्तर पुस्तिका सार्वजनिक होनी चाहिए

दोस्तो इस विषय के साथ मैं अपने नए ब्लॉग के साथ आप लोगों के बीच में आ रहा हूँ . अपने नये ब्लॉग को मैंने नाम दिया है "नजर". नजर नाम देने का एक मात्र कारण यह है कि कभी कभी मैं समाचार पत्रों की ओर अपनी नजर फिरा लेता हूँ और बहुत कुछ पढने को मिलता है, कभी कभी मैं ऐसे लेखों से भी होकर गुजरता हूँ जिस पर अपने विचार ब्यक्त करने के लिए मैं लालायित हो जाता हूँ , समाचार पत्रों में मैं अपने विचार तो प्रेषित नही कर सकता हूँ , इसीलिए सोचा इंटरनेट के ब्लॉग माध्यम से आप लोगों के बीच अपने मन के द्वंद को बाटों. वैसे न तो मैं लेखक हूँ और न ही कवि और न ही मुझमे लिखने की कला, बस केवल टूटे-फूटे शब्दों में अपनी बात आप लोगों तक पहुचाना चाहता हूँ . मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप लोग जरूर मुझे मार्गदर्शित करेंगे.


दोस्तो एजुकेशन और कैरियर हमारे जीवन का एक मह्त्वापूर्ण अंग है जो कि हमारा भविष्य तय करते है. सोचो यदि कोई हमारे भविष्य के साथ खिलवाड़ करे तो इसका परिणाम क्या हो सकता है, हम ख़ुद इसका अंदाजा लगा सकते है.

दोस्तो बहुत समय सुनने को मिलता है जब कई विद्यार्थी और अन्य प्रतियोगी कहते है कि मेरा फलाना पेपर / परीछा तो बहुत अच्छा गया था, मुझे तो पूरी उमीद थी पास होने की, अच्छे नम्बर आने की फ़िर भी मैं पास नही हुआ या मेरी अच्छी नम्बर नही आयी. मैं मात्र १ या २ नंबर्स से पीछे रहा गया. इस प्रकार के विभिन प्रश्न हमारे मन मस्तिष्क में घुमते रहते है. आख़िर ऐसा क्योँ हुआ? हम इसका कारन ढूढने की कोशिश तो करते है लेकिन कुछ कर नही सकते.

दोस्तो वैसे कोई भी एक्साम या प्रतियोगिता पास करना हमारी अपनी मेहनत पर निर्भर करता है, जैसी हम मेहनत करेंगे वैसा ही हमको परिणाम मिलेगा, लेकिन कभी कभी हम मेहनत तो पूरी करते है लेकिन उसके अनुसार हमको परिणाम प्राप्त नही होता है. क्योँ हमको इसके अनुसार परिणाम प्राप्त नही होता है, इसके कई दोषी हो सकते है

बहुत बार सुनने को मिलता है कि फलाना बोर्ड की कॉपियाँ कूड़े के ढेर में मिली या अध्यापक के बच्चों को कॉपियाँ जांचते हुए पाया गया या पैसे देकर फलाने ने परीछा में टॉप किया या पैसे में डिग्री खरीदी गई. इस प्रकार की कई खबरें अक्सर सुनने को मिलती है. इसका परिणाम कोण भुगतेगा?

दोस्तो मेरा मुख्य विन्दु यह है कि क्या किसी भी परीक्षा या प्रतियोगिता परीक्षा के बाद उत्तर पुस्तिका प्रतियोगी को आवश्यकता पड़ने पर दिखाई देनी चाहिए? क्या अब ऐसा समय आ गया है जब हमको इस प्रकार के कानून की आवश्यकता हो गई है ? क्या हमको ऐसा अधिकार मिलना चाहिए कि हम अपनी उत्तर पुस्तिका का स्वयं मूल्यांकन परिणाम घोषित होने के बाद कर सकें ?

दोस्तो यदि कोई ऐसा कानून बनता है तो निश्चित ही इसके कई धनात्मक प्रभाव हमारे समाज और सरकारी, निजी तंत्र में देखने को मिलेंगे. सबसे पहला जो लाभ मिलेगा वो है पारदर्शिता की. दूसरा लाभ भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में मदद मिल सकती है, कैसे मिल सकती है , ये बात आप खुद सोच समझ सकते है. इसमे मुझे ज्यादा कुछ लिखने की जरूरत नही है .

मेरा यहा पर लिखने का एक मात्र उद्देश्य यह है कि मैं आप लोगों के विचार भी जानना चाहता हूँ कि क्या वास्तव मे हमको एक ऐसे कानून की जरूरत है, जो हमारे आने वाली युवा पीढ़ी को या हमारे उन प्रतियोगी भाई-बहिनों को ये अधिकार दे कि वे अपने प्रतियोगी परीक्षाओं की उत्तर पुस्तिकाओं का स्वयं मूल्यांकन कर सके आवश्यकता पड़ने पर.

अपने विचार जरूर देन