Friday, August 8, 2008

हे भगवान् किसी को न दीजो ऐसा बुडापा

बात कुछ दिन पहले की है. मैं सुबह घर से अपने ऑफिस के लिए निकलते हुए बस स्टैंड पर पंहुचा. स्टैंड पर काफी भीड़ थी, कई लोग बस से उतर रहे थे तो कई लोग बस में सवार हो रहे थे और कई लोग बस का इंतजार भी कर रहे थे, उन्ही में से एक मैं भी अपनी बस का इन्तजार कर रहा था. मुझे लगभग २-३ मिनट बस की इंतजारी करते हुए हो गया था, लेकिन मैं इन चंद मिनटों के समय में एक चीज ध्यान पूर्वक देख रहा था, एक बुजुर्ग, उम्र लगभग ६०-७० के बीच की, बस स्टैंड पर उपस्स्तिथ सभी लोगों से हाथ जोड़कर विनती कर रहे थे कि कोई उन्हें खाना खिलाये, उन्हें भूख लगी है, उनकी हालत देख कर तो ऐसा लग रहा था कि जैसे उन्होंने काफी समय से भोजन नही किया है, लेकिन किसी भी मुसाफिर ने उनकी तरफ़ देखना तक पसंद नही किया, वह बेचारा, लाचार, भूख प्यास से पीड़ित बुजुर्ग अभी भी इस आश से लोगों से विनती कर रहा था कि कोई जरूर उनकी मदद करेगा, लेकिन शायद दया नामक भावः हमारे ह्रदय में रहा ही न था. जैसे मैं उस बुजुर्ग की ओर आगे बड़ा तभी एक महानुभाव ने उनकी तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि चलो मैं आपको भोजन करवाता हूँ. वो सज्जन उन बुजुर्ग को एक रेडी वाले की दुकान पर ले गए और रेडी वाले से उनके लिए भोजन की थाली को लगाने के लिए कहा. मेरी नजर तो उन बुजुर्ग पर ही थी, मैं तब और भी अचंभित हो गया जब उस दुकानदार ने उस बुजुर्ग को खाना देने से साफ़ मना कर दिया. मेरी समझ में ये नही आ रहा था कि जब वो सज्जन उनको खाना खिलाना चाहता है तो फ़िर वो मना क्यों कर रहा है? उस सज्जन ने बड़े प्रेम से उस रेडी वाले से कहा कि भय्या मैं तुमको पैसे दे रहा हूँ, तुम्हे इनको भोजन खिलाने में क्या परेशानी है? तब रेडी वाला बोलता है कि ये बुड्डा पागल है, ये बार बार यहाँ पर आकर खाना मांगता है, मैं इसको खाना नही दूंगा. उस सज्जन की काफी अनुनय विनय के बाद वो दुकानदार उस बुजुर्ग को खाना देने के लिए तैयार हो गया. उन्होंने उसको पूडी और छोले की थाली दी. थाली में एक पूड़ी और कुछ छोले थे, जैसे ही बुजुर्ग ने थाली में एक पूड़ी देखि तो बिना पूड़ी खाए हुए उन्होंने उस सज्जन से कहा कि मुझे तीन पूडियां और चाहिए. उस ब्यक्ति ने बड़े प्यार से उन बुजुर्ग से कहा कि आपको जितनी पूडिया चाहिए, आपको मिलेगी, आप बड़े आराम से खाईये. बाद में थीं और पूडियां उस बुजुर्ग की थाली में परोशी गई. दुकान दार को पैसे चुकाने के बाद वो सज्जन अपने गंतब्य की ओर प्रस्थान कर गया जबकि बुजुर्ग भोजन का स्वाद ले रहा था और अपनी भूख मिटा रहा था.

अब सवाल ये है कि क्या वो बुजुर्ग वास्तव में पागल था या भूख ने उसको पागलों जैसा बना दिया था. क्या उस दुकानदार का कहना बिल्कुल उचित था कि यदि इसको खाना देते है तो ये बार बार खाने की मांग करता है?. नही दोस्तों, सोचो यदि हम भूख से बहुत ब्याकुल है और यदि कोई हमें एक टुकडा रोटी को दे तो क्या वो एक रोटी को टुकडा हमारी भूख को तृप्त कर देगा? नही बल्कि वो हमारी भूख को और प्रज्जवलित करेगा जब तक कि हमें भरपेट भोजन न मिल जाय. वही स्तिथि उस बुजुर्ग की भी थी, यदि कोई उसे एक रोटी का टुकडा भी देता होगा तो उससे उसकी भूख शांत नही होती है, बल्कि और भी ज्यादा बदती होगी और इसीलिए वो बार बार खाने की मांग करता होगा. इसलिए दोस्तों मेरी नजर में पागल वो बुजुर्ग नही है, बल्कि उसकी भूख है, जिसने उसको पागलों जैसा बना दिया है. एक अकेला ही ऐसा बुजुर्ग नही है, आपको हजारों लाखों ऐसे कई लोग मिल जायेगे जो अपनी क्षुदा (भूख) पूर्ति करने के लिए पागलों की श्रेणी में गिने जाते है.

धन्य हो ऐसे पुत्र पुत्री जिन्होंने अपने माँ बाप को ऐसी अवस्था में छोड़ दिया है, उनके लिए मेरे पास शब्द नही है और अगर यदि उस बुजुर्ग के पास इस बुडापे के लिए कोई अपना सहारा ही नही है या था तो मैं भगवान् से यही प्रार्थना करूँगा कि हे भगवान् ना दीजो कभी किसी (मुझे) को ऐसा बुडापा.

तो दोस्तों क्या आप ऐसा बुडापा जीवन ब्यतीत करना चाहेंगे कि आपको २ जून की रोटी के लिए दर दर भटकना पड़े?

सुभाष काण्डपाल
बद्री केदार उत्तराखंड

2 comments:

L.Goswami said...

atyant afsosjanak.hamre samaj me sanwedana marti ja rahi hai

mkg.durgapur said...

Budhapa to ekdin aana hi hai...ha par hamein iske liye kuch kadam uthane parenge jisse yeh din na dekhna pare.

Ham dusro par nirbhor kyon rahen?

India mein aksar aisa dekha jata hai ki, parents apne bachho se bahoot sari ashayein rakhte hai...yeh theek hai ki ashayein rakhni chahiye...but itna bhi nahi ki yeh din dekhna parein.

Khud sabdhan ho jana hi behatar hoga, samay ke saath khud ko bhi badalna parega.