Sunday, February 1, 2009

पब संस्कृति बनाम भारतीय संस्कृति

पिछले दिनों मंगलोर के एक पब पर कुछ हिंसावादियों द्वारा लड़कियों की पिटाई का मामला आज भारतीय राजनीती और मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है . वास्तव में जो कुछ भी हुआ,उसका तरीका बहुत ही निंदनीय है लेकिन इस घटना ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है "क्या पब संस्कृति भारतीय संस्कृति का अंग है या नही " और भारतीय संस्कृति के सरंक्षण के ठेकेदार कोन है?. सचमुच एक सोचनीय विषय है.

प्रत्येक जन की अपनी अलग अलग राय इस विषय पर देखने और सुनने को मिलती है. कोई इसका पक्षधर है तो किसी के मतानुसार पब संस्कृति बिल्कुल भी भारतीय संस्कृति का अंग नही है. अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न हम लोगों के बीच में उभर कर आया है कि आखिर भारतीय संस्कृति क्या है और इसके सरंक्षण के ठेकेदार कोन है?

आज भारतीय सविधान ने हर किसी को अपनी मर्जी से अपना जीवन जीने का अधिकार दिया हुआ है. सभी लोग कहते है कि ये मेरी लाइफ है जिसे मैं जैसे चाहों उस ढंग से जी सकता हूँ , लेकिन साथ साथ में सविधान ने ये भी कहा है कि आपकी स्वतंत्रा वहा पर ख़तम हो जाती है जहा पर उससे किसी दूसरे को परेशानी का अनुभव होता है. शायद इस विषय पर हमारा ध्यान नही जाता.

अब बात आती है कि क्या पब संस्कृति को भारतीय समाज में मान्यता मिलनी चाहिए या पब संस्कृति भारतीय सभ्यता के लिए हानिकारक है? मेरी ब्याक्तिगत राय में पब संस्कृति न कभी भारतीय संस्कृति का अंग रही होगी और न कभी इसको भारतीय संस्कृति में शामिल करने की कोशिश करनी चाहिए. हमारी अपनी संस्कृति अपने आप में अदुतीय है. विश्व में यदि कोई संस्कारित और पर हितकारी संस्कृति है तो वो है "भारतीय संस्कृति ". क्यों हम लोग अपनी संस्कृति को बिगाड़ने का काम कर रहे है?, क्यों हम लोग पश्चिमी संस्कृति में मिश्रित होना चाहते है. आज जो लोग २१वी सदी की दुहाई देते हुए कहते है लोग चाँद पर पहुच गए है और हम आज भी वही ४०-५० पहले वाली सोच पाले हुए है, बुजुर्गों की सोच पाले हुए है. ये राग आलापते हुए कि आज दुनिया विकास कर रही है, हम लोग विकास कर रहे है तो हमको अपनी सोच भी बदलनी चाहिए, हमें भी विकास करना चाहिए. मैं भी इस बात से इतेफाक रखता हूँ कि जरूर हमें भी विकास करना चाहिए किस क्षेत्र में- आर्थिक क्षेत्र में, बोधिक क्षेत्र में, तकनीकी के क्षेत्र में, हमें भी इतना विकास करना चाहिए कि कोई भी भूख से न मरे, प्यास से न मरे, तन ढकने के लिए सबको कपड़ा मिले. हमें ऐसा विकास चाहिए.

आर्थिक विकास और तकनीकी विकास की तो हम हमेशा बात करते रहते है लेकिन क्या कभी हमने सामाजिक विकास की बात की.क्या हमने कभी सोचा कि हमारा सामाजिक विकास किस प्रकार होना चाहिए. क्या आर्थिक दृष्टि से मजबूत होना ही विकास को परिभाषित करता है? क्या सामजिक मूल्यों का विकास में कोई योगदान नही है? जो लोग पब संस्कृति की बात कर रहे है मैं उन लोगों से पूछना चाहता हूँ कि किसी भी पब में जाकर नृत्य करना, दारु नशा और विभिन्न प्रकार के नशीले पदार्थों का सेवन करके उसमे झूमना, ये किस विकास की बात हो रही है और ये कोंसी सभ्यता है?

जो आज हाई सोसाइटी के नाम पर समाज को बिगाड़ने की जो प्रथा चल रही है वो वास्तव में सोचनीय है. पहले जमाने और हमारे धार्मिक ग्रंथों में एक शब्द का प्रयोग बहुतायत में हुआ है वो है "उच्चकुल". इस उच्चकुल का प्राचीन में क्या अर्थ था और आज इसका क्या अर्थ हो गया है ये हम सभी लोग जानते है. लेकिन आज उच्चकुल ने हाई सोसाइटी का रूप ले लिया है और जो कि केवल पैसों से टोला जाता है. आज उसी को हाई सोसाइटी का माना जाता है जिसके पास बहुत सारा पैसा हो, जो लाखों रूपये के सूट बूट पहनता हो, जो आलिशान वातानुकूलित गाड़ियों में सफर करता हो, घूमता हो, जो होटल-बार में जाकर शराब पीता हो और वहा पर नाचने वाली मजबूर लड़कियों/औरतों पर पैसा उडेलता हो, बस यही तो हाई सोसाइटी है और यही से तो पब संस्कृति का जन्म हुआ है. इसी को तो विकास कहते है और २१वी सदी कहते है. चाहे उनमे वो मानवीय गुन हों या न हों जो कि वास्तव में एक उच्चकुल को परिभाषित करते है, लेकिन समाज में पैसे की बहुलता के कारण वो एक हाई सोसाइटी के नाम से जाने जाते है और जिसमे वो ख़ुद का सम्मान महसूस करते है.


अब प्रश्न आता है कि जो लोग पब में जाना चाहते है, शराब पीना चाहते है, नशा करने चाहते है तो उनको करने दो, इस पर समाज पर क्या असर पड़ेगा? मेरी दृष्टि में तो असर पड़ता है भाई, बहुत असर पड़ता है. एक नवजात शिशु की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है, जो कुछ प्रारम्भ में वो अपने परिवार से सीखता है उसका चरित्र का उसी के अनुसार विकास होता है.जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है, स्कूल जाता है, आस पड़ोस में जाता है , समाज के बीच में जाता है तो वहा से वो बहुत कुछ सीखता है. कुछ अच्छी बातें भी सीखता है और कुछ बुरी बातें बी. ये एक शास्वित सत्य है कि हम बुरी चीजों के ओर बड़ी जल्दी आकृषित हो जाते है, बुरी चीजों को सीखने में कुछ ज्यादा वक्त नही लगता है, शायद उस समय हमको ये बोध नही होता है कि हमारे लिए बुरा क्या है और अच्छा, बस हमें उसमे कुछ आनंद की अनुभूति होती है और हम उसके पीछे दोड़ने लगते है लेकिन जब हमको ये आभास होता है कि अमुक चीज हमारे लिए हानिकारक है तो तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.

समाज क्या है? किसी समूह को ही तो हम समाज कहते है, चाहे वो मनुष्य का समाज हो या पशु -पक्षियों या कीडे मकोडों का समाज हो. हर किसी का अपना एक समाज होता है और उसी समाज में पल बढ़ कर वो आगे बढ़ता है . मनुष्य का समाज बाकि अन्य समाज से श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि मनुष्य में बुधि विवेक होता है और सबसे बड़ी बात ये है कि प्रकृति ने उसको एक वाणी यन्त्र दिया है जिसकी सहायता से वो अपनी बात अपने समाज के बीच में रखता है.

आज समाज में प्रतिश्पर्धा की दोड़ है, हर कोई हर किसी से आगे निकलना चाहता है और इस प्रतिश्पर्धा ने धीरे धीरे दिखावे का रूप ले लिया है. आज हर कोई अपने पड़ोसी के घर में झांकता है कि वहा पर क्या पाक रहा है, वो कैसे कपड़े पहन रहे है, कैसी गाड़ी में घूम रहे है उनका मकान कितना बड़ा है , वहा संगमरमर लगा हुआ है या सीमेंट, उनके बच्चे किन स्कूलों में पढ़ते है और कहा कहा घूमने जाते है और इन्ही चीजों को पाने की अपेक्षा वो अपने परिवार से भी करता है, चाहे वो इन चीजों को हासिल करने के लिए सक्षम हो या नही फ़िर भी उनकी इच्छा यही रहती है. अब जब मन में तृष्णा पैदा हो जाती है तो जब तक वो शांत न हो कैसे बैठा जाय?, और इन सभी चीजों को हासिल करने के लिए तब वो भूल जाता है कि उसके लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या है, क्योंकि उसको तो समाज में अपना रूतबा दिखाना होता है. इससे आगे मुझे कहने की कोई आवश्यकता नही है. मैं जो कहना चाहता हूँ शायद आप लोग मेरा अभिप्राय समझ गए होंगे.

दूसरी एक बात जो इस पब और पश्चायता संस्कृति से उभरकर आती है वो है "अश्लीलता". बहुत से लोगों का तर्क होता है कि कैसे अश्लीलता को परिभाषित किया जाय और कोन इसके मानक निर्धारित करे. मेरा उन सभी लोगों से बस एक ही उत्तर है कि जो चीज हम अपने परिवार और बच्चों के साथ नही देख सकते है या जिनको देखने में हमको कुछ असहजता महसूस होती है, बस वही चीज अश्लील है. जिस चीज को करते हुए हम अपने बच्चों को नही देखना चाहते है बस वही अश्लीलता है. मेरी दृष्टि में तो अश्लीलता को परिभाषित करना बहुत आसान है, आप लोगों का पता नही.

आज विदेशी लोग हमारी संस्कृति सभ्यता को अपना रहे है और हम उनके पीछे भाग रहे है. क्यों ? इसका उदहारण आप ब्रिन्दावन जाकर देखो, हरिद्वार ऋषिकेश जाकर देखो, बहुत से विदेशी लोग राम राम कृष्ण कृष्ण गुनगुनाते हुए नजर आयेंगे. अब ये मत कहना कि राम -कृष्ण तो हिंदू देवता है, भारत में तो और भी धर्म के लोग रहते है. देवता सबका एक ही है बस रूप अनेक है. आज जो लोग पब संस्कृति के हिमायती है मैं उन लोगों से पूछना चाहता हूँ कि उनमे से कितने लोग अपने बच्चों को रात के १२-१-२-३ बजे घर आते हुए देखना पसंद करेंगे, कितने लोग अपने बच्चों को नशे में झूमते हुए देखना पसंद करेंगे? शायद उत्तर हाँ में बहुत कम सुनने को मिलेगा, केवल हाई सोसाइटी (३० % ) को छोड़कर, वहा पर तो कुछ भी हो सकता है, पैसे के रूतबे पर.

जब पब संस्कृति की बात छिडी ही है तो यहाँ पर एक शब्द और उभरकर आता है वो है "प्रेम". प्रेम करना कोई बुरी बात नही है,सदियों से लोग प्रेम करते आए है लेकिन अपने उस प्रेम को प्रेम तक ही और मर्यादों के अन्दर तक सीमित रखा जाय तो वो अच्छा है. प्रेम का सार्वजनिक स्थानों में प्रदर्शन बिल्कुल भी शोभनीय नही है. अगर प्रेम सामाजिक दायरों और मर्यादा के अन्दर किया जाय तो उस प्रेम की हर कोई प्रसंशा करेगा. सामाजिक दायरे और मर्यादाएं हमें खुद निर्धारित करनी है.

बात पब संस्कृति की हो और मीडिया का नाम ना आए तो ये हो ही नही सकता. मुझे कभी कभी भारतीय गणतंत्र के चोथे स्तम्भ कहे जाने वाले मीडिया पर भी अफ़सोस होता है. शायद कभी कभी हमारा मीडिया अपने पथ और उधेश्य से विचलित हो जाता है, जब वो समाज के ठेकेदार, बुजुर्गों की पुराणी सोच, २१वी सदी के भारत की बात करता है. समाज के ठेकेदार कोई वर्ग विशेष नही है, समाज के ठेकेदार हम सभी है, अपने समाज को कैसे बचाया जाय, कैसे संस्कारित किया जाय, कैसे भाई चारे का पाठ सिखाया जाय, कैसे देश प्रेम की भावना विकसित की जाय और कैसे एक सभ्य समाज का निर्माण किया जाय उसकी नैतिक जिम्मेदारी समाज के हर वर्ग और ब्यक्ति की है.


एक और बात जो अक्सर हम लोग भूल जाते है वो है अहसास कराने की. बाल्मीकी रामायण और तुलसीदास जी के बारे में आप सभी लोग भली प्रकार से जानते है, दोनों ही बहुत बड़े विद्वान हुए है , लेकिन अगर दोनों के प्रारंभिक जीवन पर प्रकाश डालें तो उनको ये पता नही था कि उनमे क्या गुण है और क्या अवगुण , लेकिन जब उनको उनके गुणों का अहसास कराया गया तो दोनों ने ही इतिहास में अपना नाम अमर करवा दिया. शायद यदि तुलसी दास जी कि पत्नी उनको धित्कारती नही तो आज राम चरित मानस जैसा पवित्र ग्रन्थ पढने को नही मिलता. शायद यदि वो साधू लोग बाल्मीकी को ये नही बताते कि जो तू कर रहा है क्या इस पाप के हकदार तेरे परिवार वाले भी होंगे तेरे साथ या नही, जिनके लिए तू ये सब पाप कर रहा है तो आज हमको बाल्मीकि रामायण पढने को नही मिलती. दोनों ही शक्शों को अपनी अपनी विद्वता का ज्ञान तब हुआ जब उन्हें अहसास कराया गया. हनुमान जी को ये पता नही था कि वो समुद्र को पार करके लंका में प्रवेश कर सकते है,लेकिन जब उनको ये अहसास कराया गया कि तुममें ये शक्ति है कि तुम इस समुद्र को पार कर सकते हो तब वो अपनी मंजिल को पाने में सफल हुए.

इन दृष्टान्तों का अभिप्राय केवल ये है कि किसी किसी के गुणों या अवगुणों के बारे में बताना कोई बुरा काम नही है चाहे स्वयं उसमे वो गुण विद्यमान है कि नही . इसमे किसी भी प्रकार की हानि है . अब वो हमारी सोच पर निर्भर करता है कि हम उसको किस रूप में स्वीकार करते है .

अब जहा तक अपनी संस्कृति को बचाने के लिए कानून बनाने की बात है, मैं बिल्कुल इस विचार का समर्थक हूँ . देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए कानून का अपना एक अलग स्थान है. हम इसके महत्व को नही नकार सकते है. अगर देश की संस्कृति को बचाए रखना है तो इसके लिए कानूनों की भी सख्त आवश्यकता है .लेकिन हमेशा याद रखना चाहिए कि कानून हमेशा प्रजा के लिए बनाये जाते है और पालन भी हमको ही करने पड़ेंगे. जब तक हमारे मन में कानून के प्रति प्रेम, आदर और विश्वास नही होगा तब तक वो कानून हमारे लिए किसी काम के नही होते है.

अंत में मंगलोर की घटना पर मेरा अपना मत है कि श्री राम सेना द्वारा जो कार्य किया गया,
उसका तरीका बिल्कुल भी ग़लत था. किसी को हिंसा के बल शिक्षित और सचेत करना बिल्कुल भी शोभनीय नही है. यह जानकर खुशी हुई है कि श्री राम जैसे संगठन अपनी संस्कृति को लेकर काफी सजग है और सारे देशवाशियों को भी होना चाहिए लेकिन उनका जो काम करने का मार्ग है वो बिल्कुल शोभनीय नही है. अगर किसी को शिक्षित करना है तो अपने विचारों से करिए, अपने कार्यों से करिए, पश्चायात्य संस्कृति के गुन-अवगुणों को बताकर करिए, न किसी को डरा धमका कर और हिंसा के बल पर. हिंसा के बल पर न्याय दिलाना, ये तो हमारा सविधान भी स्वीकार नही करता है, इसलिए सबसे बड़ा हमारा अपना सविधान है, हमारा इसके प्रति सम्मान होना चाहिए और सविधान के अंतर्गत ही सारे काम होने चाहिए.

अंत मैं केवल यही कहूँगा कि अगर ३०% हाई सोसाइटी वाले लोगों को साथ लेकर भारत का विकास करना है तो तब जरूर हम पब संस्कृति को अपनी संस्कृति में शामिल कर सकते है लेकिन यदि ७०% सामान्य जन समूह को साथ में लेकर भारतवर्ष का विकास करना है तो तब हमें जरूर इस विषय पर सोचना चाहिए.

धन्यबाद

4 comments:

अक्षत विचार said...

आज उसी को हाई सोसाइटी का माना जाता है जिसके पास बहुत सारा पैसा हो, जो लाखों रूपये के सूट बूट पहनता हो, जो आलिशान वातानुकूलित गाड़ियों में सफर करता हो, घूमता हो, जो होटल-बार में जाकर शराब पीता हो और वहा पर नाचने वाली मजबूर लड़कियों/औरतों पर पैसा उडेलता हो, बस यही तो हाई सोसाइटी है और यही से तो पब संस्कृति का जन्म हुआ है.

Anup said...

bahut badiya likha . mubarak ho...

Unknown said...

बहुत अच्छा, विस्तृत और विचारपूर्ण लेख, पूर्णतः सहमत…

अनिल कान्त said...

स्वतंत्रता का सही मायनों में अर्थ ही समझ जाए अगर लोग तो परेशानी ही ना रहे ..

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति